कहानी संग्रह >> अगला यथार्थ अगला यथार्थहिमांशु जोशी
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हिमांशु जोशी की हृदयस्पर्शी कहानियों का संग्रह...
कांछा
सनसनाती हुई तीखी हवा की तेज़ धार !
बर्फ गिरने के जैसे आसार !
तन का जो हिस्सा खुला रह जाता है, पहले लाल, जामनी, फिर नीला पड़ने लगता है-निष्प्राण होता हुआ।
इन जाड़ों में इतनी किल्लकारी की ठंड इससे पहले कभी भी नहीं पड़ी थी। नंगे पांव धरती पर पड़ते ही डंक-सा चुभता-प्राण निकल जाते। बांज के छिक्कल-जैसे खुरदरे, रूखे हाथ-पांवों पर, चेहरे पर, जगह-जगह दरारें-सी पड़ जातीं, जिनसे कभी-कभी रक्त रिसने लगता।
सोने से पहले, बरतन-भांडे मांजने के बाद कांछा जब अंगीठी की आग के पास बैठा, अपने थुरथुर कांपते, निर्जीव नन्हे हाथ सेंक रहा था, काकी ने काठ की कठिया में से, करछी से खोप-खोपकर, एक डली च्यूरा की उसकी ओर बढ़ाई थी, “गर्म करके हाथ-पांव पर मल से कांछू... दरद कुछ कम होगा... लहू नहीं चुएगा...!”
सुनकर भी जैसे उसने सुना नहीं। मन कहीं और था-ऊहापोह में। नौंनी-सी मुलायम, हिम-सी सफेद डली छोटी-सी हथेली पर धरी, धीरे-धीरे घी की तरह पिघलने लगी।
भीतर जाकर काकी ने दूसरी तरफ का दरवाज़ा भड़ाक से बंद करके अलगनी लगा दी, तो वह अकेला रह गया, छोटे-से चाक में। बाहर के किवाड़ पहले से ही बंद थे।
पानी बरसने लगा था शायद ! तभी पाथर बिछे आंगन में तड़-तड़ आवाज़ आ रही थी !
खरसू की लकड़ियां धधक रही थीं। च्यूरा पिघलकर, तेल की तरह बह गया था-नन्ही उंगलियों की जड़ों की दरारों से। भीतर के कमरे में पहले हंसने-बोलने का स्वर-सम्मिलित स्वर देर तक गूंजता रहा था। पर अब चनक बंद थी। मिट्टी के तेल का लंफू भी बुझ गया था। लगता था-सब सो गए हैं-सारी दुनिया। हां, कभी-कभी बाहर कहीं, ठंड से ठिठुरते कुत्ते का कर्कश स्वर अवश्य गूंज रहा था।
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